पिछले कुछ दशकों में विदेश में पढ़ाई करना भारतीय छात्रों के लिए एक सपना बन गया था, लेकिन अब यह चमक कहीं फीकी होती नजर आ रही है। जब छात्र पहले सौख से विदेश रुख करते थे, तो आज वे शिक्षा के साथ-साथ भारी आर्थिक बोझ और अप्रत्याशित वीज़ा नियमों से जूझते दिख रहे हैं। खासकर महंगी ट्यूशन फीस, आवास खर्च और जीवनयापन पर बढ़ती लागत ने कई परिवारों की उम्मीदों को सुकून देने की जगह चिंता बढ़ाई है।
आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले साल से ही विदेशी विश्वविद्यालयों में भारतीय छात्रों की प्रविष्टि में गिरावट आ रही है। विस्तार से देखें तो आवेदन संख्या में 15 से 20 प्रतिशत तक की कमी आई है। इसमें प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं अपडेटेड indian student visa restrictions और बढ़ती ब्याज दरों पर एजुकेशन लोन। आज छात्र अपनी मासिक व्यय सूची में ट्यूशन, हॉस्टल किराया, बीमा, टिकट और दैनिक खर्चों को देख कर पेट पर पत्थर रख लेते हैं।
मेरा मानना है कि इस बदलाव का एक बड़ा कारण भारत में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में आई निरंतर सुधार भी है। अब IIT, IIM जैसी संस्थाएं दुनिया के टॉप रैंक वाले विश्वविद्यालयों से मुकाबला कर रही हैं। साथ ही ऑनलाइन कोर्सेज और हाइब्रिड मॉडल ने भी विदेशी डिग्री का वैकल्पिक रास्ता पेश किया है। इन विकल्पों की वजह से पारंपरिक “विलायती डिग्री” का आकर्षण कम हुआ है।
इसके अलावा बाजार में नौकरी मिलने की संभावनाओं और रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट (ROI) का गणित भी छात्रों का रुख बदल रहा है। जहाँ विदेश में पढ़ाई का खर्च लाखों में निपटता है, वहीं कई छात्रों को दस्तावेजी प्रक्रियाएँ पूरी होने के बाद भी काम मिलने में चुनौतियाँ आती हैं। ऐसे में घर के पास ही सस्ती और वैध शिक्षा चुनना समझदारी भरा विकल्प साबित हो रहा है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि “विलायती डिग्री” का खुमार अब भारतीय युवा पीढ़ी पर वैसा असर नहीं छोड़ रहा जैसा पहले होता था। आर्थिक व्यवहारिकता, घरेलू संस्थानों की बढ़ती प्रतिष्ठा और बदलते करियर विकल्प—इन सभी ने मिलकर छात्रों को अपनी शिक्षा की दिशा पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित किया है। इसलिए भविष्य में शिक्षा-नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे खर्च नियंत्रण, पारदर्शी वीज़ा प्रक्रिया और गुणवत्तापूर्ण पाठ्यक्रम पर ध्यान दें, ताकि छात्रों का संतुलित निर्णय संभव हो सके।

