बिहार में आंकड़ों की दुनिया में एक सुखद खबर है—बेरोजगारी दर कम हुई—मगर इस खुशी के पीछे एक कटु सच्चाई छिपी है। जब ग्रामीण और कम पढ़े–लिखे श्रमिकों की बेरोजगारी मात्र 0.8% तक सीमित है, तो वहीं ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट नौजवान 15 से 19% के बीच अस्थिर रोजगार की आशा लगाए बैठे हैं। यह विरोधाभास सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना का संकेत है।
PLFS रिपोर्ट और लेबर सर्वे के नवीनतम डेटा बताते हैं कि बिहार की युवा आबादी में शिक्षा और कौशल के बीच गहरी खाई है। जहां अधूरी या अनुपयुक्त ट्रेनिंग की वजह से स्किल डेवलपमेंट के प्रयास थोड़े अधख़रे रह जाते हैं, वहीं नौकरी चाहने वाले युवा रोज़गार बाजार की मांग और उपलब्ध पाठ्यक्रमों की विसंगति का शिकार बनते हैं।
सरकार ने प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, राष्ट्रीय अप्रेंटिसशिप प्रमोशन स्कीम, जन शिक्षण संस्थान और स्किल इंडिया डिजिटल हब जैसी पहलें शुरू की हैं, लेकिन कमियों की लंबी लिस्ट है—अप्रभावी ट्रैकर, प्रशिक्षकों की कमी, स्थानीय उद्योगों से अपर्याप्त जुड़ाव और ग्रेजुएट युवाओं के मन में असमंजस। परिणामस्वरूप योजनाएं ‘बनावटी’ नजर आती हैं, जबकि धरातल पर रोज़गार की खुशियां दूर-दराज की बातें लगती हैं।
बेचैन युवाओं में नौकरी ना मिलने की निराशा ने सामाजिक तनाव बढ़ाया है और राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को हवा दी है। 2025 के बिहार चुनाव से पहले यह संकट और भी तूल पकड़ सकता है, क्योंकि बेरोजगार ग्रेजुएट वोटर्स अपना विश्वास साबित मांगेंगे। ग्रामीण नौकरियों में तो आगाहियां मिल रही हैं, लेकिन शिक्षित वर्ग को उपेक्षित रखना राज्य के समग्र विकास में ठहराव ला सकता है।
निष्कर्षतः, समस्या का समाधान सिर्फ सरकारी बजट नहीं बल्कि मांग के अनुसार कौशल का निर्माण, निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी, स्थानीय उद्यमों को प्रोत्साहन और डिजिटल प्रशिक्षण केंद्रों का व्यापक जाल ताने में है। जब उच्च शिक्षित युवा लक्ष्य–उन्मुख प्रशिक्षण प्राप्त करेंगे और स्थानीय उद्योगों से सीधे जुड़ेंगे, तभी बिहार के बेरोजगारी के आंकड़े सकारात्मक दिशा में बदलेंगे और एक नई उम्मीद जगाएंगे।

