जेएनयू छात्रसंघ चुनाव 2025 के नामांकन की आखिरी तारीख पर छात्र राजनीति में एक नया अध्याय जुड़ गया है। वामपंथी छात्र संगठनों ने महागठबंधन की तस्वीर पेश की, लेकिन कन्हैया कुमार के पूर्व संगठन AISF (आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन) को इस ब्लॉक से किनारे कर दिया गया। इस कदम ने कैम्पस में अटकलों और चर्चाओं का दौर शुरू कर दिया है।
यह फैसला केवल संगठनात्मक समीकरणों तक सीमित नहीं रहा, क्योंकि बताया जा रहा है कि गठबंधन ने मुस्लिम उम्मीदवारों के समर्थन को लेकर नई रणनीति अपनाई है। महागठबंधन का मानना है कि सामाजिक विविधता को संतुलित तरीके से प्रस्तुत करना जरूरी है, जबकि AISF की अनुपस्थिति इस संतुलन को लेकर विरोधाभास भी पैदा करती है।
सरगर्मी का असर मैदान पर भी साफ दिख रहा है। SFI, AISA जैसे दूसरे वाम छात्र दलों ने मिलकर चुनावी मोर्चा तैयार किया है, वहीं AISF अब अपने दम पर ही चुनावी अखाड़े में उतरने को विवश है। इससे कट्टरता भरा संवाद बढ़ने का खतरा भी है, क्योंकि दोनों पक्ष अपने-अपने एजेंडे को जोर-शोर से जनता तक पहुंचाएंगे।
छात्रों में भी इस फैसले को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएं हैं। कुछ का मानना है कि बिखरा वाम खाता छात्र एकता को कमजोर करता है, जबकि अन्य इसे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और विचारों की लड़ाई के रूप में देख रहे हैं। केमिस्ट्री की राजनीति में अब यह देखना रोचक होगा कि कौन से मुद्दे सबसे अधिक हवा खाते हैं और छात्र समर्थन की दिशा कैसी रहती है।
अंततः यह घटनाक्रम हमें याद दिलाता है कि छात्र राजनीति में भी गठबंधन और समान विचारधारा के बीच संतुलन कितना मायने रखता है। कन्हैया की पार्टी का महागठबंधन से अलग होना सिर्फ नामांकन भर नहीं, बल्कि भावी नेतृत्व को भी परखने की कसौटी साबित होगा। इस परिदृश्य से यही सीख मिलती है कि विचारों की विविधता को संगठित तरीकों से जोड़ना ही छात्र राजनीति का असली आधार है।

