यूरोप कई वर्षों से भारतीय प्रोफेशनल्स के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। ऊँची सैलरी, बेहतरीन वर्क-लाइफ बैलेंस और सुव्यवस्थित सोशियल इंफ्रास्ट्रक्चर ने इसे करियर बनाने वालों का पसंदीदा गंतव्य बना दिया है। सोशल मीडिया पर चमकते इंजीनियर, डॉक्टर और आईटी स्पेशलिस्ट्स की कहानियों ने इस ख्वाब को और मजबूत किया है।
पहली चुनौती है “दूसरे दर्जे का नागरिक” महसूस होना। स्थानीय लोगों की ग्रुप कल्चर में घुलना-मिलना आसान नहीं, और जब कभी काम या रोजमर्रा की लाइफ में किसी तरह की परेशानी आती है, तो विदेशी होने के नाते आपको ही पीछे धकेला जाता है। भाषा की छोटी सी कमी या संस्कृति के अंतर से ही आप अलग-थलग पड़ सकते हैं।
दूसरा जो बड़ा फैक्टर सामने आता है वह है महंगी जिंदगी और ऊँचा टैक्स बेझार। जितनी अच्छी सैलरी मिलती है, उससे कहीं अधिक राशि टैक्स और हाई कोस्ट ऑफ़ लिविंग में जाता हुआ दिखता है। रेंट, ट्रांसपोर्ट और रोजमर्रा के खर्चे भारतीय हिसाब से बहुत बढ़े हुए हैं, जिससे बचत करना मुश्किल हो जाता है।
तीसरा और चौथा कारण जुड़ी हैं करियर ग्रोथ और सामाजिक दूरी से। कई कंपनियों में भाषा की बाधा या स्थानीय पुरानी नेटवर्क का अभाव आपको उच्च पदों पर नहीं पहुँचने देता। वहीं लंबा वीज़ा प्रोसेस और रेसिडेंसी परमिट की अनिश्चितता भी स्थायित्व छीन लेती है।
इन सब बातों के बावजूद यूरोप के फायदे कम नहीं, पर व्यक्तिगत प्राथमिकताओं और पारिवारिक मूल्यों को देखें तो लौटना भी समझदारी हो सकती है। रणनीतिक रूप से देखें, तो शुरुआती चार-पाँच साल विदेश में काम कर अनुभव बढ़ाकर वापस आना, घर की जड़े मजबूत करना और यहां के संपर्कों के साथ मिलाकर नए बिजनेस या बेहतर करियर की राह सवारना अधिक संतुलित विकल्प लगता है।

